तात्या टोपे

तात्या टोपे

भारत में सन 1857 की ऐतिहासिक क्रांति को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में  जाना जाता है इस संग्राम में कुछ वीरों की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण व अग्रणी  रही, जिन्होंने  शक्तिशाली ब्रिटिश शासन की नीव को हिलाकर रख दिया । जब स्वतंत्रता संघर्ष के अधिकांश वीर एक एक करके अंग्रेजों की सैनिक शक्ति से पराभूत हो गए तो वे अकेले  ही क्रांति की पताका फहराते रहे । ये थे महान सेनानायक तात्या टोपे ।

तात्या का जन्म महाराष्ट्र में नासिक के निकट पटौदा जिले के युवाले नामक गाँव में, सन 1814 में हुआ था इनका वास्तविक नाम  रामचंद्र पांडुरंग युवालकर था । इनके पिता बाजीराव पेशवा के गृह – प्रबंध विभाग के प्रधान थे । बाजीराव सन 1818 में बसाई के युद्ध में अंग्रेजों से हर गए । उन्हे पुना छोड़ना पड़ा । इस कारण तात्या के पिता भी पेशवा के साथ पुना से कानपुर के पास बिठूर आ गए । यही पर तात्या बचपन में नाना साहब, लक्ष्मीबाई आदि के साथ युद्ध के खेल खेला करते थे । वे  आजीवन अविवाहित रहे । 1851 में पेशवा की मृत्यु के पश्चात नाना साहब बिठूर के राजा हुए ।

जब पेशवा बाजीराव बिठूर आए तो संधि के अनुसार उन्हे अंग्रेजों से पेंशन मिलती थी । उनकी मृत्यु के पश्चात यह पेंशन बंद कर दी गई । इससे नाना साहब बाहर से तो सहज शांत थे ,लेकिन आंतरिक रूप से क्षुब्ध थे । 29 मार्च, 1857 को बैरकपुर, बंगाल में मंगल पांडे के विद्रोह के बाद जब यह ज्वाला कानपुर पहुंची तो कानपुर उत्तरी भारत के सबसे बड़े विद्रोह केंद्रों में से एक हो गया ।

कानपुर के पास ही नाना और उनके साथ तात्या रहते थे जिनके साथ अंग्रेजों के लिए बने एक कच्चे दुर्ग को घेर लिया । यहां  सैकड़ों की संख्या में अंग्रेज मौजूद थे । तात्या ने 12 जून को सीधा आक्रमण किया । इस यद्ध में  तात्या की विजय हुई और अंग्रेज सैन्य अधिकारी व्हीलर को आत्मसमर्पण करना पड़ा ।

अब तात्या कानपुर की रक्षा के लिए अपनी फौजों को व्यवस्थित करने मे लग गए । तभी हैवलाक की अगुवाई में अंग्रेजी सेना ने जुलाई 1857 के द्वितीय सप्ताह में कानपुर पर धावा बोल दिया । दोनों पक्षों में भीषण युद्ध हुआ लेकिन अंततः विजयश्री अंग्रेजों को मिली । इस पराजय के बाद नाना ने अपने पूर्व सेनाध्यक्ष को हटाकर तात्या को अपना सेनाध्यक्ष बनाया और उन्हे विद्रोह की पताका फहराते रहने का आदेश दिया ।

अब पूरा नेतृत्व तात्या के हाथों में आ गया । वह अपनी कुशलता व बहादुरी के बल पर इस स्वाधीनता संघर्ष में सबसे लंबी अवधि या समय तक  अर्थात 17 जुलाई 1857 से 8 अप्रैल 1859 तक डटे रहे ।

कानपुर पर पुनः कब्जा करने मे सफलता न मिल पाने के कारण तात्या ने एक किले की आवश्यकता को महसूस करते हुए कालपी के दुर्ग पर तत्काल अधिकार कर लिया । नवंबर 1857 के अंत में  एक बार पुनः तात्या ने ग्वालियर सैन्य दल एवं अन्य सैनिकों के सहयोग से अंग्रेज सेनानायक विढंम की फौज को हराकर कानपुर पर अधिकार कर लिया, किन्तु यह विजय बहुत ही अल्पकालिक  रही । कैंपबेल के तीव्र आक्रमण से कानपुर पर पुनः अंग्रेजों का अधिकार हो गया । शीघ्र ही ह्यूरोज ने एक बड़ी सेना के साथ कालपी दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया और तात्या को वहाँ से हटना पड़ा ।

मार्च 1857 में अंग्रेजी सेना से झाँसी की रानी का प्रचंड  युद्ध चल रहा था ।  तब तात्या 20000 सैनिक की विशाल फौज के साथ उनकी सहायता के लिए झाँसी के निकट आ चुके थे लेकिन तभी सूचना पाकर  ह्यूरोज की सेना के बीच 4 अप्रैल 1857 को बेतवा का भयंकर युद्ध लड़ गया । इस युद्ध मे अंग्रेजों के अच्छे तोपखाने के कारण तात्या की सेना को पीछे हटना पड़ा ।

उसके  बाद तात्या 22 जून 1858 से लेकर 7 अप्रैल 1859 को पकड़े जाने तक चतुर्दिक अंग्रेजी फौजों के साथ गोरिल्ला युद्ध करते रहे । इस कारण से उन्हे विश्व के सर्वश्रेष्ट गोरिल्ला युद्ध के सेनानायक के रूप मे प्रसिद्धि मिली । उन्होंने लगातार 8 महीनों तक पीछा करने वाली अंग्रेजी फौजों को छकाए रखा तब अप्रैल 1859 के अंत तक स्वतंत्रता संघर्ष के वीरों में से एक मात्र बचे अंतिम और सर्वश्रेष्ट वीर तात्या को पकड़ने के लिए अंग्रेजों ने विश्वसघात  का सहारा लिया ।

अंततः 7 अप्रैल जी अंग्रेज सैनिक अधिकारी मीड ने तात्या के सहयोगी मानसिंह पर दबाव बनाकर उसकी सहायता से तात्या को धोखे से गिरफ्तार कर लिया । कड़ी यातनाओ के बीच 18 अप्रैल 1859 को सिपारी के दुर्ग के पास परेड मैदान में उन्हे फांसी दे दी गई ।

तात्या केवल चम्बल नर्मदा और ताप्ती की घाटियों मे ही नहीं अपितु हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक और राजस्थान से बंगाल तक सम्पूर्ण देश के लोगों के हृद मे विद्यमान है उन्होंने एक ऐसा युद्ध लड़ा जो विजय और पराजय की सीमा से परे था, किन्तु उन्होंने अपने देश एवं राष्ट्र की महान परम्पराओ के अनुरूप  युद्ध किया ।

उनका नाम सदैव एक राष्ट्रीय वीर के रूप मे सम्मानपूर्वक लिया जाता रहेगा ।

 

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