रानी चेन्नम्मा
कर्नाटक प्रांत मे एक छोटा – सा कस्बा है कित्तूर । यह धारवाड़ और बेलगाँव के बीच बसा है । एक बार की बात है बेलगाँव के काकति नामक स्थान पर नरभक्षी बाघ का आतंक फैल गया । जन – जीवन संकट मे था । उस समय कित्तूर में राजा मल्लसर्ज का शासन था ।
राजा उस समय काकति आए तो उन्हे बाघ के आतंक की सूचना मिली । राजा तुरंत बाघ की खोज में निकले । सौभाग्य से बाघ का पता शीघ्र ही चल गया और राजा ने उस पर बाण चला दिया, बाघ घायल होकर गिर गया । राजा तुरंत बाघ के निकट पहुँचे, लेकिन यह क्या ? बाघ पर एक नहीं दो बिंधे थे जबकि राजा ने एक ही बाण चलाया था । राजा आश्चर्य में पड़ गए । तभी उनकी दृष्टि सैनिक वेशभूषा मे सजी एक सुंदर कन्या पर पड़ी ।
राजा को समझते देर न लगी कि दूसरी बाण कन्या का ही है ।
राजा को देखते ही कन्या क्रुद्ध स्वर मे बोली आपको क्या आधिकार था जो आपने मेरे खेल मे विघ्न डाला । राजा कुछ न बोल सके बह मन ही मन कन्या की वीरता और सौन्दर्य पर मुग्ध होकर उसे देखते रह गए । इतने मे राजा के अन्य साथी भी आ गए । राजा ने उन्हे उस कन्या की वीरता के बारे मे बताया । सभी लोग कन्या की वीरता की सराहना करने लगे ।
राजा ने उस वीर कन्या के विषय में जानकारी की । उसे ज्ञात हुआ कि वह काकति के मुखिया की पुत्री चेन्नम्मा है । राजा ने मुखिया से उनकी वीरपुत्री का हाथ मांगा । मुखिया ने हाँ कर दी और वह वीर कन्या कित्तूर की रानी चेन्नम्मा बन गई , राजा मलसर्ज ने 1782 से 1816 ताल लगभग चौतीस वर्ष कित्तूर के छोटे से राज्य पर शासन किया । वे रानी चेन्नम्मा की राजनैतिक कुशलता से अत्यंत प्रभावित थे । राज्य के शासन प्रबंध में वे रानी की सलाह लिया करते थे ।
पेशवा द्वारा धोखे से बंदी बना लेने के कारण राजा मल्लसर्ज को बहुत समय तक बंदीगृह में रहना पड़ा जिससे उनका स्वास्थ बिगड़ गया । कित्तूर लौटते – लौटते वह अंतिम साँसे गिनने लगे । चेन्नम्मा ने राजा की रात – दिन सेवा की । स्वस्थ करने का हर संभव प्रयास किया किन्तु क्रूरकाल से वह उन्हे बचा न पायी ।
उन्होंने कित्तूर की स्वाधीनता की रक्षा को ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया । यह ऐसा समय था जब अंग्रेज कित्तूर की वीरभूमि पर अपना अधिकार करने के लिए प्रयत्नशील थे ।
राजा मल्लसर्ज के बाद कित्तूर की गद्दी पर उनका पुत्र शिवलिंग रुद्रसर्ज बैठा । रुद्रसर्ज अस्वस्थ रहता था जिसके कारण शीघ्र ही उसकी भी मृत्यु हो गई । अब कित्तूर के सम्मुख उत्तराधिकारी का संकट आ खड़ा हुआ । अंग्रेज चाहते थे कि रानी किसी उत्तराधिकारी को गोद न लें । चेन्नम्मा अंग्रेजों की चाल समझ गई ।
उन्हे प्राण किया कि वे जीते जी कित्तूर को अंग्रेजों के हवाले नहीं करेंगी ।
चेन्नम्मा ने ब्रिटिश अधिकारियों को अपना मन्तव्य बार बार स्पष्ट कर दिया किन्तु वे अपनी चालें चलते रहे । क्रुद्ध होकर रानी ने कित्तूर वासियों को सचेत करते हुए अपने सरदारों और दरबार के अधिकारियों के सामने आवेशपूर्ण घोषणा की – कित्तूर हमारा है ।
हम अपने इलाके के स्वयं मालिक है अंग्रेज कित्तूर पर अधिकार कर उस पर शासन करना चाहते है । वे निश्चय ही भ्रम मे है । कित्तूर के लोग स्वतंत्राता की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति दे सकते है । हमारा एक सिपाही उनके दस दस सिपाहियों के बराबर है । कित्तूर झुकेगा नहीं, वह अपनी धरती की रक्षा की लिए अंतिम क्षण तक लड़ेंगे ।
रानी की ओजपूर्ण वाणी का सटीक प्रभाव पड़ा । दरबारियों एवं जनता मे जोश की लहर दौड़ गई । सब एक स्वर में चिल्ला उठे, कित्तूर की जय, रानी चेन्नम्मा की जय ।
अंग्रेजों को कित्तूर की स्वाधीनता खटक रही थी । अंग्रेज कलेक्टर थैकरे ने 23 सितंबर 1884 को कित्तूर पर घेरा डाल दिया । उसके सिपाही किले मे घुसने की कोशिश करने लगे । चेन्नम्मा के सरदार गुरु सीछप्पा ने भी अपने वीर सिपाही को आदेश दिया कि उन्हे कुचल डाले, खदेड़ भगाए, पल भर में कित्तूर के वीरों ने अंग्रेजी सेना को तहस – नहस कर दिया ।
अंग्रेजी सेना के लगभग चालीस लोग बंदी बना लिए गए । बंदी बनाए गए लोगों में कुछ अंग्रेज सैनिक कुछ स्त्रियाँ तथा बच्चे भी थे । चेन्नम्मा ने सैनिकों को तो बंदीगृह में डाल दिया किन्तु स्त्रियों तथा बच्चों को वह राजमहल के अतिथिगृह में ले आयी । शत्रुपक्ष को सूचना दे दी गई की उनके बच्चे व स्त्रियाँ सुरक्षित है,
जब चाहे उन्हे वापस ले जाए । रानी के इस उदारतापूर्ण व्यवहार से शत्रुपक्ष बहुत प्रभावित हुआ । थैकरे भी इस व्यवहार से प्रभावित हुए बिना न रह सका – वीरता और उदारता का ऐसा अद्भुत संगम बहुत काम देखने को मिलता है ।
अंग्रेजों के साथ हुए इस अल्पकालिक युद्ध में रानी को जो विजय मिली वह उनकी शक्ति का प्रथम संकेत था । पराजर के बाद कलेक्टर थैकरे ने कई बार प्रयास किया कि वह रानी से मिलकर उन्हे अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार करने को विवश करें, किन्तु उसके सभी प्रयास विफल रहे । हारकर कलेक्टर थैकरे ने कित्तूर के दुर्ग की ओर अपनी तोपें लगवा दी । उसने कित्तूरवासियों को चेतावनी दी कि अगले दिन प्रातः काल तक दुर्ग का द्वार न खोला गया तो तोपों से उड़ा दिया जाएगा ।
ठीक चौबीस मीनट बाद एक झटके मे दुर्ग का द्वार खुला । जो दृश्य का वह अंग्रेजों की कल्पना से परे थे । कित्तूर के सिपाही विद्युत गति से अंग्रेजी सेन पर टूट पड़े । रानी चेन्नम्मा किले के परकोटों पर खड़ी सेना का संचालन कर रही थी । कमर में सोने की पेटी, पेटी मे लटकती म्यान, दाहिने हाथ मे चमकती नंगी तलवार और बायें हाथ मे घोड़े की लगाम ।
रानी चेन्नम्मा का यह रूप उनके साहस और संकल्प का परिचय दे रहा था । कित्तूर के वीरों ने गुप्त द्वार से निकल निकलकर शत्रुओ को मौत के घाट उतरना शुरू कर दिया । अंग्रेजी सेना के पैर उखड़ गए और सैनिक भयभीत होकर .
अपने सैनिकों को भागता देख थैकरे ने अपना घोड़ा दुर्ग की ओर बढ़ाया । कित्तूर का वीर सैनिक बलप्पा रानी के पास ही खड़ा था । उसने निशाना साधा और थैकरे को परलोक पहुंचा दिया । अंग्रेजी सेन में हाहाकार मच गया । थैकरे के अतिरिक्त अन्य कई बड़े अधिकारी और सैनिक मारे गए ।
कित्तूर के निकट धारवाड़ नामक स्थान पर उस समय बहुत बड़ी सांख्य मे अंग्रेज सैनिक और अधिकार विद्यमान थे । उन्हे इस समाचार पर विश्वास ही नहीं हुआ की कित्तूर के मुट्टी भर वीरों से अंग्रेजी सेन का मुँह की खानी पड़ी । उन्होंने तुरंत अपने सभी सैनिक अड्डों पर यह समाचार भेज दिया । कई देशी राजाओ और मराठों को भी अंग्रेजों ने अपनी ओर मिलाने की कोशिश की । एक बार पुनः दलबल एकत्र कर अंग्रेजों ने कित्तूर रियासत पर आक्रमण की योजना बनाई ।
अंग्रेजों ने रानी चेन्नम्मा को अधीनता स्वीकार करने के लिए अनेक प्रलोभन दिए जिन्हे रानी ने ठुकरा दिया । वीर रानी किसी भी कीमत पर कित्तूर की स्वाधीनता बेचने को तैयार न थी । इन प्रस्तावों पर वह अत्यंत क्रुद्ध हो गई । यद्यपि रानी के पास सैन्य बल काम था फिर भी वह युद्ध के लिए तैयार थी ।
जब अंग्रेजों की दाल किसी भी प्रकार न गली तो अंततः दिसंबर 1824 को पुनः कित्तूर पर आक्रमण कर दिया । वीर रानी अपने सैनिकों को उत्साहित करती रही , लगभग पाँच दिन तक युद्ध चला । कित्तूर दुर्ग के बाहर का मैदान वीरों की लाशों से पट गया । 5 दिसंबर 1824 को सुबह कित्तूर के ध्वस्त किले के परकोटे पर अंग्रेजों का झण्डा यूनियन जैक फहराने लगा । एज स्वर्णिम अध्याय का अंत हो गया ।
वीर रानी चेन्नम्मा बंदी बना ली गई । उन्हे लगभग पाँच वर्ष तक बेलहोंगल के किले मे बंदी बनाकर रखा गया । 21 फरवरी 1829 को रानी की मृत्यु हो गई । उनकी वीरता साहस पराक्रम तथा देशभक्ति कित्तूरवासियों के लिए प्रेरणा स्रोत सिद्ध हुई ।
कित्तूर दुर्ग के खंडहरों को देखकर आज भी उनकी गैरव गाथा साहस ही याद हो आती है बेलहोंगल में बना रानी चेन्नम्मा स्मारक तथा धारवाड़ में बना कित्तूर चेन्नम्मा पार्क रानी की वीरता, त्याग व उत्सर्ग की याद दिलाते है । देश – प्रेम और उत्सर्ग का यह ऐसा उदाहरण है जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता ।
क्या आप इनके भी बारे मे पढ़ना चाहेंगे जो इतिहास और हर देश भक्त के दिलों मे आज भी विराजमान है –
रानी लक्ष्मीबाई – प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की महा नायिका ।
रानी दुर्गावती – मुगलों को 2 बार युद्ध मे लोहा लेने वाली महानायिका ।
तात्या टोपे – 1857 की क्रांति के सबसे बड़े महानायक, जिनके सामने अंग्रेज भी घुटने टेक दिए थे ।
जगदीश चंद्र बसु – भारतीय वैज्ञानिक, संसाधनों के कमी मे भी खोज करने वाले वैज्ञानिक
वीर अब्दुल हमीद – पाकिस्तान की टैंक को अकेले उढ़ाने वाले वीर ।